आज ही के दिन

आज ही के दिन हमारी जिन्दगी में
इक चमकता जगमगाता चाँद उगा था

चाँद ऐसा, अनघ पूनम का उतारा
ज्यों कि रम्भा-सी परी का अवतरण हो
देवता भी हो स्वयं निर्लज्ज जाये
स्वर्ग में भी जिसकी शोभा का वरण हो
एक ही मुस्कान पर जिसकी पुरन्दर
पल में अपने लोक का आसन गंवा दे
परस पाने के लिए जिसका महाजन
राह में धन-धान्य की चादर बिछा दे

आज ही के दिन गुलिस्तां में सुगंधित
कल्प-तरु की डालियों में गुल खिला था।

चाँद, जिसको देखकर तन बहक जाता
और साँसों की डगर में शून्य पलता
गन्ध जिसके कुन्तलों की मोह लेती
तो भला कब तक ये चंचल मन संभलता
देखकर सौन्दर्य उसका, नेह उसका
भावना अंतस में अपनेपन की भर ली
जानकर सब भाव मेरे चाँद ने तब
प्रेम की तप-साधना स्वीकार कर ली

आज ही के दिन ह्रदय की धड़कनों को
वाद्य यंत्रों से सजा नव सुर मिला था।

– हरेन्द्र पुष्कर

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