विशेष नर प्रत्येक है

इस जगत विशेष में, विशेष नर प्रत्येक है,
खोज ले तू खुद में खुद को, खो गया जो एक है।

आँच पर समय की खुद को तू भी तो चढ़ा जरा,
कर्म की आहुतियों से आँच को बढ़ा जरा,
भाग्य रेखाओं को अपने कर्म से लड़ा जरा
बादलों की भांति व्योम में भी गड़गड़ा जरा,

तू दिगन्त को छूएगा, लक्ष्य अगर नेक है,
खोज ले तू खुद में खुद को, खो गया जो एक है।

लक्ष्य साध कर के अपने मन को एक रथ बना,
रथ पे फिर सवार होके खुद ही अपना पथ बना,
पथ की बाधाओं में भी न रुकने की शपथ बना,
तू अथक प्रयास करके एक अग्निपथ बना।

झूठ-सच सही-गलत, ये खुद का ही विवेक है
खोज ले तू खुद में खुद को, खो गया जो एक है।

मत यहाँ-वहाँ भटक तू, तू ही तो मकरंद है,
गीता का है सार तू, तू ही विवेकानंद है,
जीत के हर गीत का तू शास्वत सा छंद है
तू ही सर्वश्रेष्ठ है न इसमें कोई द्वंद है

कर्म और कुछ नहीं, ये आत्म अभिषेक है
खोज ले तू खुद में खुद को, खो गया जो एक है।

पथ में मंजिलों से पहले मुश्किलें भी आएंगीं
काम भी मिलेगा पथ में माया भी भरमाएंगीं,
तू सहज सरल रहे तो तुझको छू न पाएंगीं,
मत निराश होना तुझको मंजिलें अपनाएंगीं,

विरले नर ही करते कर्म सोचता हरेक है,
खोज ले तू खुद में खुद को खो गया जो एक है।

इस जगत विशेष में, विशेष नर प्रत्येक है
खोज ले तू खुद में खुद को, खो गया जो एक है

विदित नारायण

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