कृष्ण जाने गए हैं जहाँ जब कहीं

कृष्ण जाने गए हैं जहाँ जब कहीं
भेद कोई जगत का बचा ही नहीं
आत्म से आत्मा तक चले चक्र जो
उसका सर्ग उन्हीं से विसर्ग वहीं

राम से जानकी का विरह जब हुआ
प्रेम जन के हृदय से विलग तब हुआ
युग विभीषक हुआ एक इतिहास का
नैन मूंदे समय ने थलग सब हुआ

इस तमस की उमस में विवश नारियाँ
प्राण पाती गँवाती रही प्यारियाँ
यही विकलता निरत विष्णु सह न सके
आ गए रास करने श्री, बलिहारियाँ!

माँ यशोदा को प्रेम-दही से छला
गोपियों को सिखा नृत्य गायन कला
आप मुरली की तानों में बहने लगे
बृज ने बिसरा दिया सब बुरा क्या भला

रास के पाश में आस थे मोहना
थे छली, दिल-अली भी बली सोहमा
प्रेम में थे परंतप, भजक मोह के
बन्ध थे प्राण थे त्राण थे नंदना

एक राधा को आधा बताकर हरे
प्रेम पाती में कृष्णा राधे भरे
राधे-राधे जपे जन नमन जब करें
प्रेम से मन तुम ही ने अगाध भरे

सोनल गुप्ता ‘नेहार्य’

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