जंगल राज : आरम्भ या अंत

धाँय..धाँय..धाँय..धाँय
छत्तीस राउंड फायर
पहली गोली मरने वाले की
कनपटी पर चली दीखी
कनपटी वह भी पुलिस से घिरी
“हिरासत में” नहीं, उसकी “अभिरक्षा में”
तिस पर उसकी हत्या !
घायल होकर कनपटी ने
क्षण भर में ही
भारी-भरी देह को लाश बना डाला:
मगर बाद यह शोर सुना
कि लोकतंत्र की हत्या हुई
संविधान ने
एक कनपटी पर चली गोली से
घटना स्थल पर ही दम तोड़ा
और फिर कोहराम मचा
मातम हुआ
छातियाँ पीटी गईं
पीटी गईं भी यों
कदाचित हनुमान देख लेते यदि तो जान पाते
सीने को फाड़ना कितना बचकाना था
समर्पण का यह नया शेखर
सन्निकट है चंद्रशेखर के

राष्ट्र के वैधव्य पर दुहाइयाँ तो खूब थी
खूब थी लानत मलामत
आँसू मगर एक भी नहीं
कदाचित सूख गए सारे
जागे हुओं को जगाने को
आँखें फटी सी बाहर आने को ही न हों जब तक
तब तक जगाने को
आँसू सुखाएं सारे
मानव अधिकारों के परखच्चों पर
दहाड़ मारते
एक अपराधी की हत्या को
विधान की सनसनीखेज़ मृत्यु बतलाते

सैकड़ों अपराध का उसका रिकार्ड
कुछेक जीडीयों का एकल नामधारी
कई मानवों के जीवन के अधिकार का नृशंस हन्ता
जिसका कुत्ता भी
खुले मंच पर
सर्वोच्च की मित्रवत् गर्मजोशी का पात्र
और सर्वोच्च उसके कुत्ते के भी आगे नतमस्तक
वह कि जिसने समाज के अभिरक्षकों को
कर लिया बंधक
और सत्ता गिड़गिड़ाकर चाट कर तलुए
जिन्हें लाई छुड़ाकर
उसकी हत्या पुलिस की अभिरक्षा में
चार दशक जिसने सत्ता को हथियार बना
विधि के शासन में विधि को ही बींध दिया
उसने देखा था न्याय की देवी देख नहीं सकती
इसलिए उसकी तलवार का वार पड़े भरपूर मगर
अन्याय के पोषण का रक्षक बन
उसकी तराजू के पलड़े जब तब नीचे आये
निर्दोष को हाय! दबाते गए
वह मरा! मारा गया!
तो मानवाधिकारों की ऊँची गूंज उठी
आवाज़ मगर इनमें जो सबसे ऊंची थी
वह कर्कश थी
जो धुन में थी भयमुक्त कंठ की हँसना थी

कर्कश ध्वनि में
परचूने की दुकान में शराब बेचने वाले
के सुर भी थे
चारे को सोना करने वाले कीमियागर भी
उन्मादी थे
मानव के अभिरक्षक को
प्राणिमात्र का रक्षक घोषित करने वाले
भैसों के शुभचिंतक जब बोले
तो
(भूल गए बंदूक से निकली गोली
न जाति न मान केवल जान लेती है )
बहुत सुने का गाढ़ा गाढ़ा यह कि
सरकार के लोग
उन्हें अब चिड़ियाघर के प्रबंधक से जान पड़े
संविधान की संस्थाओं तक को
कुत्ता, तोता बता दिया
(वफ़ादार भी, चमचा भी)
कहने वाले सीधी सधी भाषा में कह नहीं पाते
शायद, तथापि सोचते तो हैं
सत्ता में शेर आया है
जो न्याय की प्राकृतिक परिभाषा ही जान सका केवल
इसलिए जैसे को तैसा को चरितार्थ करता वह
खेतों को कब्जाने वालों की हवेलियों को
खेत रहा बुलडोज़र से
माफ़िया को माफ़ न कर खाद की माफ़िक़
मिलाता मिट्टी में

मगर सत्ता के गलियारों में शोर उठा है
लोकतंत्र की हत्या का
संविधान की मृत्यु का
भाईचारे के क़त्ल का
गङ्गा-जमुना अलगाव का
और लोग यह सोच रहे हैं
चार दशक एक अपराधी
जब मूँछ ऐंठता नेता बनकर
उसी पुलिस से सलाम पा
जिसे वारंट के साथ उसी को तलाश थी
नए-पुराने, छोटे-बड़े, सितारे-सिधारे सभी नेता
उससे अपनी पहचान फ़ख़्र से बतलाते रहे
किसी का भाई था वो
किसी की जान था वो
कानून से बढ़कर स्वयं संविधान था वो
उसकी हत्या पर सवाल
मज़हब के नाम पर बवाल
वातानुकूलित दिमाग में फफकता उबाल
और लोकतंत्र की माँ- भारत में लोकतंत्र के
सर्वनाश का ख़्याल

लोगों की स्मृति में है अभी वह तथ्य
इक्कीस वीं सदी का पाँचवाँ वर्ष
वही नगर वही डगर वही ख़बर
एक जनप्रतिनिधि पर टूट पड़े कई हमलावर
चली गोलियाँ तड़ातड़
लोग लेकर टेम्पो में जा रहे थे तब पुनः
यह सोच कोई श्वास अब भी बच रही इस देह में
फिर से उन्नीस राउंड फायर उसी एक व्यक्ति पर –
दिन दहाड़े,
पुलिस ने की अंत्येष्टि आनन-फानन मारे-मारे
तेल से ही फूँक दी वह लाश
परिजनों को बिन बताए-पुकारे,
आज के विरोधी तब के सितारे
पूँछता है जनमन आज उनसे इकट्ठा
तब संविधान कैसे था आनन्द में ?
कैसे था लोकतंत्र हट्टा-कट्टा ?
और क्या कहा
“जंगल राज” ?
प्रकृति में दोष खोजना ही शग़ल है आज ?
वरना वहाँ कभी नहीं देखा
शेर को बिना भूख के शिकार करते
तुष्ट शेर के साथ हिरण भी उसी एक जंगल में विचरते
और यदि शक्ति अमन्वय का नियत साधन
अहो! तब हाथियों को सोच आये मोच मन की चाल में
जंगल में मङ्गल की बात कैसी ? साध क्या ?
उत्तरजीविता का दोष जितना निरीह के ह्रास में
दोष उतना व्याप्त जंगल-राज में
यहां मगर सभ्यता उत्कृष्टता के ध्वजवाहक समाज में
शक्ति के सम्बोध में क्षमता रही, समता नहीं
और सत्ता का सटीक अर्थांवयन इतना, यही
क्षमता साधना कैसे…कभी ?

1 thought on “जंगल राज : आरम्भ या अंत”

Leave a Comment